चाक

1

वो अज़ल से अपने अज़ीम चाक पे

मुम्किनात के इंकिशाफ़ में महव है

फ़लक-ओ-ज़मीं मह-ओ-आफ़्ताब-ओ-नुजूम कोहना करिश्मे उस के कमाल के

अभी इस की जिद्दत-ए-बे-पनाह को तरह-ए-नौ की तलाश है

अभी अर्श-ओ-फ़र्श के ना-शुनीदा शमाइल उस की नज़र में हैं

अभी मावरा-ए-ख़याल-ओ-फ़िक्र-ए-मसाइल उस की नज़र में हैं

कुर्रा-ए-ज़मीं को ये फ़ख़्र है

कि ये ख़ाक ख़ालिक़-ए-ख़ालिक़ां को अज़ीज़ है

यहीं साँस लेती हयात जल्वा-नुमा हुई

इसी अर्ज़-ए-ख़ाक को अरमुग़ान-ए-नुमू मिला

यहाँ ज़िंदगी के वो रंग हैं वो तरीक़ हैं

कि न उन का कोई शुमार है न हिसाब है

इन्ही पैकरों में है जा-ब-जा वो तिलिस्म-ए-अक्स-ए-जमाल भी

जिसे देख लेने से चश्म-ओ-दिल हमा-हैरत-ओ-हमा-बे-ख़ुदी

कहीं कोंपलों को निखारता है वो लज़्ज़त-ए-नम-ए-शाख़ से

कहीं मू-क़लम से सँवारता है गुलों में रंग नए नए

कभी बख़्शा है दिलों को दर्द की जाँ-गुदाज़ लताफ़तें

कोई रंग हो कोई रूप हो

कोई शक्ल कोई मिज़ाज हो

सभी उस के चाक से आए हैं

2

ये सारी बातें सच ही सही

ये सारे गुमान दुरुस्त सही

पर ये तो कहो

क़दमों तले रौंदे पत्तों की आवाज़ सुनी है तुम ने कभी

मुरझाए हुए फूलों से कभी बीती हुई रुत की बात हुई

कभी ख़ौफ़-ज़दा नख़चीरों की आँखों में झाँक के देखा है

कभी दुखते दिलों की उस धड़कन उस दहशत में भी शरीक हुए

जो होते हुए भी न होने के एहसास से पैदा होती है

फटी पुरानी शक्लों वाले

ये अपाहिज ये मा'ज़ूर ज़ईफ़

ये टूटे फूटे खिलौने भी

उसी चाक से आए हैं कि नहीं

कल जिन की हयात थी बर्क़-आसा

पैवंद-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक हुए

जिन्हें देख के आँखें रौशन थीं

पिन्हाँ पस-ए-पर्दा-ए-ख़ाक हुए

वो नक़्श-गर-ए-कामिल है तो फिर

जो नक़्श-ए-जमील बनाता है

जो दर्द दिलों में जगाता है

उसे ग़ारत क्यूँ कर देता है

फ़नकार-ए-अज़ल को क्या अपने किसी नक़्श पे इत्मिनान नहीं

3

आदमी-ज़ादे किसी रंग किसी नक़्श का पाबंद न हो

ज़ीस्त ठहरा हुआ जौहड़ नहीं मव्वाज-ओ-रवाँ दरिया है

तू है इक ठहरे हुए पल में तलबगार-ए-दवाम

ये दवाम अस्ल में है बे-हिसी-ए-मर्ग का नाम

आदमी-ज़ादे तिरे रिश्ते हैं बादल की तरह

घिर के आते हैं बरसते हैं गुज़र जाते हैं

यूँ भी होता है कि कुछ देर ठहर जाते हैं

यूँ भी होता है कि बिन बरसे बिखर जाते हैं

तू किसी रिश्ते किसी अब्र का पाबंद न हो

तू कि है टूटे खिलौने के लिए गिर्या-कुनाँ

देख ये ख़ाक के पैकर तो फ़क़त शक्ल बदल लेते हैं

इन्ही टूटे हुए बेकार खिलौनों की ये मिट्टी फिर से

ज़ीस्त के चलते हुए चाक के काम आती है

फिर नए रूप में ढल जाती है

जाने वालों के लिए

मिटते रंगों के लिए टूटे खिलौनों के लिए

तेरा हर नौहा बजा है लेकिन

आने वालों का बनाव भी तो देख

ताज़ा कोंपल की नज़ाकत में तनाव भी तो देख

कि वो फ़नकार-ए-अज़ल

आज भी अपने उसी चाक पे है

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