हम

1

बिछी हुई है बिसात कब से

ज़माना शातिर है और हम

इस बिसात के ज़िश्त-ओ-ख़ूब-ख़ानों में

दस्त-ए-नादीदा के इशारों पे चल रहे हैं

बिछी हुई है बिसात अज़ल से

बिछी हुई है बिसात जिस की न इब्तिदा है न इंतिहा है

बिसात ऐसा ख़ला है जो वुसअत-ए-तसव्वुर से मावरा है

करिश्मा-ए-काएनात क्या है

बिसात पर आते जाते मोहरों का सिलसिला है

बिसात साकित है वक़्त-ए-मुतलक़

बिसात बे-जुम्बिश और बे-हिस है

अपने मोहरों से ला-तअल्लुक़ है

उस को इस से ग़रज़ नहीं है

कि कौन जीता है

और किस ने शिकस्त खाई

वजूद हादिस वजूद मोहरे

बिसात-ए-साकित की वुसअतों में

ज़मीन अहल-ए-ज़मीन अफ़्लाक अहल-ए-अफ़्लाक

अपनी अपनी मुअ'य्यना साअ'तों में ऐसे गुज़र रहे हैं

कि जैसे आँखों से ख़्वाब गुज़रें

बिसात पर जो भी है

वो होने की मोहलतों में असीर

पैहम बदल रहा है

वजूद वो हिद्दत-ए-रवाँ है

जो नित-नई हैअतों में बाक़ी है

और उस को फ़ना नहीं

जहाँ पहाड़ों के आसमाँ-बोस सिलसिले हैं

वहाँ कभी बहर मौजज़न थे

जहाँ बयाबाँ में रेत उड़ती है

बाद-ए-मस्मूम गूँजती है

वहाँ कभी सब्ज़ा-ज़ार-ओ-गुल-गश्त का समाँ था

बुलंद-ओ-बाला हक़ीर-ओ-हेच

इस शिकस्त-ओ-ता'मीर के तसलसुल में बह रहे हैं

शिकस्त-ओ-ता'मीर के तसलसुल में तू है मैं हूँ

हम ऐसे मोहरे

जिन्हें इरादे दिए गए हैं

ये जन की तौफ़ीक़ पर हदें हैं

जिन्हें तमन्ना के रंग दिखला दिए गए हैं

मगर वसीलों पर क़दग़नें हैं

जिन्हें मोहब्बत के ढंग सिखला दिए गए हैं

प दस्त-ओ-पा में सलासिल-ए-नौ बनो

तो गर्दन में तौक़ पहना दिए गए हैं

जो है जो अब तक हुआ है जो हो रहा है

उस से किसे मफ़र है

कोई जो चाहे

कि अहद-ए-रफ़्ता से एक पल फिर से लौट आए

कहा हुआ लफ़्ज़ अन-कहा हो सके

तो इस आरज़ू का हासिल वो जानता है

बहुत सही इख़्तियार-ओ-इम्काँ

बर्ग-ओ-ख़स की ताब-ओ-मजाल क्या है

नुमू-ए-ग़ुंचा में उस का अपना कमाल क्या है

तिरी निगाहों में तेरा ग़म कोह से गिराँ-तर है

तू समझता है

तेरे सीने के सुर्ख़ लावे से

शहर-ओ-क़र्या पिघल रहे हैं

ख़िज़ाँ ज़मिस्ताँ तिरी उदासी के आइने हैं

तू मुश्तइ'ल हो तो ज़लज़लों से ज़मीन काँपे

तुझे गुमाँ है

कि गुल खिले हैं तिरे तबस्सुम की पैरवी में

ये फूल को इख़्तियार कब था

कि कौन सी शाख़ पर खिले

कौन कुंज में मुस्कुराए

और किन फ़ज़ाओं में ख़ुशबुएँ बिखेरे

नहीफ़ शो'ला जमाल कोंपल

जो दस्त-ए-नाज़ुक की नर्म पोरों से धीरे धीरे

दरीचा-ए-शाख़ खोल कर

सुब्ह की सपेदी में झाँकती है

ये सोचती है

कि बाग़ सारा उसी के दम से महक रहा है

उसी के परतव से गोशा गोशा दमक रहा है

उसी के दीदार में मगन

ख़ुशबुओं से बोझल हवाओं में

शोख़ तितलियाँ रक़्स कर रही हैं

वो बे-ख़बर है

कि शातिर-ए-वक़्त की नज़र में

कोई इकाई

शजर हजर हो कि ज़ी-नफ़्स हो

निज़ाम-ए-कुल से अलग नहीं है

वो ये नहीं जानती कि हस्ती के कार-ख़ाने में

उस का होना न होना बे-नाम हादिसा है

और उस के हिस्से का कुल असासा

वो चंद लम्हे वो चंद साँसें हैं

जिन में वो ख़्वाब देखती है

सलीक़ा-ए-ज़ात से चमन को सँवारने का

बहार-ए-जाँ को निखारने का

2

बजा कि ना-पाएदार है ये वजूद मेरा

मैं ग़ैर-फ़ानी हयात के सिलसिले में

इक बीच की कड़ी हूँ

रहीन-ए-गर्दिश भी मरकज़-ए-काएनात भी हूँ

जो मैं ने देखा है वो मिरे ख़ूँ में रच गया है

जो मैं ने सोचा है मुझ में ज़िंदा है

और जो कुछ सुना है मुझ में समा गया है

हवा की सूरत हर एक एहसास

मेरी साँसों में जी रहा है

हर एक मंज़र मिरे तसव्वुर में बस गया है

मैं ज़ात-ए-महदूद अपनी पहनाइयों में

इक काएनात भी हूँ

मिरी रगों में वो जोशिश-ए-जावेदाँ रवाँ है

जो शाख़ में फूल की नुमू है

जो बहर में मौज की तड़प है

पर-ए-कबूतर में ताब-ए-परवाज़ है

सितारों में रौशनी है

मैं अपने होने के सब हवालों में रूनुमा हूँ

मैं जा-ब-जा सूरत-ए-सबा हूँ

ग़ज़ाल-ए-ख़ुश-चश्म की कलियों में खेलता हूँ

हुमकते बच्चे की मुस्कुराहट हूँ

पीर-ए-शब-ख़ेज़ की दुआ हूँ

मैं मेहर में माहताब में हूँ

ये कैसी चाहत है जिस से मैं

एक मुस्तक़िल इज़्तिराब में हूँ

वो कौन सी मंज़िल तलब थी

कि राँझा राँझा पुकारती हीर

आप ही राँझा हो गई थी

फ़लक से अनवार

कोह से चश्मे

शाख़ से फूल फूटते हैं

मगर हर इक फूल में नमी भी है रौशनी भी

ज़बाँ में अल्फ़ाज़

आँख में दीद

दिल में एहसास रख दिए गए हैं

प लफ़्ज़ एहसास दीद इक दूसरे का पैवंद हो गए हैं

नुमू-ओ-तख़्लीक़ के अमल बार बार दोहराए जा रहे हैं

जमाल-ए-अर्ज़-ओ-समा की तकमील हो रही है

मोहब्बत एजाज़-ए-सरमदी है

तुम्हारी आँखों की मुस्कुराहट में

मेरी चाहत की रौशनी है

यूँही शगूफ़ों के पास बैठी रहो

शुआ'ओं को आरिज़-ओ-लब से खेलने दो

हवा के हाथों को अपने गेसू बिखेरने दो

बहार की सारी ख़ुशबुएँ

अपने बाज़ुओं में समेट लो

मेरे चश्म-ओ-दिल को यक़ीन दिलाओ

कि तुम फ़क़त ख़्वाब ही नहीं हो

गुज़रते बादल का कोई अक्स-ए-रवाँ नहीं हो

तुम इक हक़ीक़त हो महज़ वहम-ओ-गुमाँ नहीं हो

मिरे क़रीब आओ और मिरी ज़ात को मिटा दो

मुझे तुम अपने जमाल की ज़ौ में जज़्ब कर लो

विसाल में फ़र्द की फ़ना है

विसाल में फ़र्द की बक़ा है

विसाल में फ़र्द की बक़ा है

बहार की दीद आरज़ी है

बहार-ए-तजरीद दाइमी है

विदाअ के वक़्त आँसुओं में

वो सारे मंज़र झलक रहे हैं

जो शाख़-ए-जाँ पर गुलों की सूरत खिले हुए थे

वो सारे इम्काँ झलक रहे हैं

जो किरची किरची बिखर गए हैं

बिखरने वालों को अपने मरकज़ की आरज़ू है

नहीं मुझे इस तरह न देखो

कि जैसे नज़रों में रूह तक उमडी आ रही हो

ये हाथ कुछ देर और रहने दो मेरे हाथों में

कुछ न बोलो

कि मैं ये नायाब लम्हे आँखों में जज़्ब कर लूँ

ये सानिए रूह में छुपा लूँ

हर एक लम्हा इक अरमुग़ाँ है

तुम्हारी चाहत का अरमुग़ाँ है

ये सानिए ऐसे फूल हैं

जो कि खिलते रहते हैं दिल ही दिल में

शगुफ़्ता रहते हैं रहते दम तक

ये चंद लम्हे किसी किसी के नसीब में हैं

वगर्ना उम्रें

ग़मों के काँटे निकालने में गुज़र गई हैं

3

वो शाम होटल में इस तरह आई

जैसे दुश्मन की फ़ौज उतरे

जगह जगह जस्त और काँसी के चेहरे

झम झम खनक रहे थे

तमाम होटल जिगर जिगर जगमगा रहा था

मैं कुंज तन्हाई में तहय्युर से देखता था

कि कैसे ख़ुश-बाश हैं जिन्हें ये ख़बर नहीं है

कि उन की बुनियाद उखड़ चुकी है

हवाएँ मस्मूम हो चुकी हैं

शजर फलों से लदे हैं लेकिन

जड़ों का ज़हर उन फलों के रेशों तक आ गया है

जो हाल अब है कभी नहीं था

हयात ख़ार-अो-ज़बूँ तो थी लेकिन इतनी ख़ार-अो-ज़बूँ नहीं थी

वो देर से इंतिज़ार-गह में

हर आने वाले को नज़रों नज़रों में नापती थी

लिबास की शोख़ी-ओ-जसारत

सिंघार की जिद्दत-ओ-महारत के बावजूद

इस का गोशा-ए-चशम उम्र की चुग़ली खा रहा था

निगाह नौ-वारिद अजनबी पर पड़ी तो इस तरह मुस्कुरा दी

कि जैसे उस की ही मुंतज़िर थी

उठी क़रीब आई और बोली

मैं एक मुद्दत से ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ कर रही हूँ

दुखे दिलों का इलाज करती हूँ

रंग और रौशनी के शहरों में

शाम-ए-तन्हाई की दिल अफ़्सुर्दगी से वाक़िफ़ हूँ

आप अकेले हैं तो कोई इंतिज़ाम कर दूँ

यहाँ से मैं दूर दूर मुल्कों को

हर तबीअ'त के गाहकों की पसंद का माल भेजती हूँ

वफ़ा मोहब्बत पुरानी बातें हैं अब इन्हें कौन पूछता है

बड़े बड़े ऊँचे ऊँचे लोगों से रात दिन मेरा वास्ता है

ये साहिबान-ए-वक़ार-ओ-नख़वत

ख़रीदना और बेचना ख़ूब जानते हैं

ये दाम देते हैं और राहत ख़रीदते हैं

बजा है ये भी कि बे-बसों की अना-ओ-इज़्ज़त ख़रीदते हैं

मगर जब आते हैं बेचने पर

तो बे-तकल्लुफ़ ज़मीर तक अपना बेच देते हैं

जाह-ओ-सर्वत की मंडियों में

मैं कह रही थी कि आप चाहें तो

आज की रात का कोई इंतिज़ाम कर दूँ

वो शाम के वक़्त ख़ूँ में लत-पत

सड़क के किनारे पड़ा हुआ था

गुज़रने वालों से कह रहा था

हमें हमारे मुहाफ़िज़ों से

नजात का रास्ता बताओ

वो ख़्वाहिश-ए-इक़्तिदार-ओ-दौलत में

हम को नीलाम कर रहे हैं

उख़ुव्वत-ओ-इत्तिहाद का दर्द देने वाले

ख़ुद अपने बच्चों के ख़ूँ से

हिर्स-ओ-हवस की शमएँ जला रहे हैं

हमारी अक़दार

आज मतरूक फैशनों के लिबास की तरह

उन की नज़रों से गिर चुकी हैं

अब उन की औलाद उन की रेशा-दवानियों से पनाह

ताज़ा ब-ताज़ा नशों में ढूँडती है

इन्ही की शह पा के नस्ल-ए-नौ

अपनी प्यास इक दूसरे के ख़ूँ से बुझा रही है

ये संग-दिल जश्न-ए-मर्ग-ए-अम्बोह-ए-बे-गुनाहाँ मना रहे हैं

कोई हमें इन नजीब सूरत

हरीस बे-मेहर करगों से

नजात का रास्ता बताओ

ये नग़्मा-ए-काएनात की बे-सुरी सदाएँ हैं

कोई इन से नजात का रास्ता बताओ

4

हम अपने ख़्वाबों में जी रहे हैं

हम अपने सुब्ह-ओ-शाम से तंग आ के

ख़्वाब बुनते हैं और ख़्वाबों में जी रहे हैं

बिसात-ए-साकित से कोई शिकवा

न शातिर-ए-वक़्त से गिला है

हमें शिकायत है आदमी से

कि आदमी आदमी का दोज़ख़ बना हुआ है

अजब तज़ादात का मुरक़्क़ा है आदमी भी

वो अहरमन भी है और यज़्दाँ-जमाल भी है

सदाक़त-ओ-हुस्न का तलबगार भी वही है

बहीमियत और वहशत-ओ-जब्र का परस्तार भी वही है

ज़मीन पे क़ाबील के क़बीले की रस्म-ए-बे-दाद औज पर है

मगर हमारा अज़ाब इस से भी तल्ख़-तर है

कि हम जो हाबील के हवारी थे

अहद-ए-हाबील में भी ज़ंजीर ही रहे हैं

शबाहतों के फ़रेब-ख़ुर्दा थे ये न जाना

नक़ाब-पोशों में कौन क्या है

हमें तो ग़म था कि नश्शा-ए-इक़्तिदार

क़ाबील हो कि हाबील

जिस किसी को चढ़ा

वो इंसानियत को ताराज कर गया है

हमारे ख़्वाबों से डर रहे हैं

वो डर रहे हैं कि ख़्वाब अल्फ़ाज़ में ढले तो

दरोग़ के पर्दे चाक होंगे

और उन के चेहरों का ग़ाज़ा उतरा

तो आइने भी अज़ाब होंगे

हम ऐसे मोहरे

जिन्हें इरादे दिए गए हैं

ये जिन की तौफ़ीक़ पर हदें हैं

हमें शिकस्तें हुईं मगर हर शिकस्त महमेज़ हो गई है

हमारे साथी गिरे प रफ़्तार और कुछ तेज़ हो गई है

यहाँ की संगीन बे-हिसी में

हमारी कोशिश का हाल ये है

कि जिस तरह कोई तीतरी

इक ख़िज़ाँ-ज़दा बाग़-ए-बे-नुमू में

भरी बहारों की जुस्तुजू में

तबस्सुम-ए-गुल की आरज़ू में

शजर शजर शाख़ शाख़ बेताब फिर रही हो

हमारे होते बहार आए न आए लेकिन

हमें ये तस्कीन है कि हम ने

हयात-ए-ना-पाएदार की एक एक साअ'त

चमन की हैअत सँवारने में गुज़ार दी है

फ़ज़ा-ए-हस्ती निखारने में गुज़ार दी है

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