अब कि इक उम्र की महरूमी से
दिल ने समझौता सा कर रक्खा था
अब कि इस रुत में किसी पेड़ पे पत्ता था न फूल
अब के हर तरह के दुख के लिए तय्यार था दिल
किस लिए सूखी हुई शाख़ पे ये शोला सी कोंपल फूटी
किस लिए तेरा ये पैग़ाम आया
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दिखावा
वक़्त बे-मेहर है इस फ़ुर्सत-ए-कमयाब में तुम
ख़ून के दरिया बह जाते हैं ख़ैर और ख़ैर के बीच
सोज़-ए-दिल भी नहीं सुकूँ भी है
टाइपिस्ट
इम्कान
चाक
वक़्त कातिब है
तीरगी
दूरी
इतना सोचा तुझे कि दुनिया को
अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं