अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं
मैं ने रफ़्ता से ये जाना है कि आइंदा नहीं
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अन-कही बात के सौ रूप कही बात का एक
वो शाख़ बने-सँवरे वो शाख़ फले-फूले
कैसे दुख कितनी चाह से देखा
तेरे दुख को पा कर हम तो अपना दुख भी भूल गए
तेरा ग़म भी न हो तो क्या जीना
शम-ए-हक़ शोबदा-ए-हर्फ़ दिखा कर ले जाए
क्या सरोकार अब किसी से मुझे
ऐ दिल-नशीं तलाश तिरी कू-ब-कू न थी
कितने इम्काँ थे जो ख़्वाबों के सहारे देखे
तुम्हारी चाहत की चाँदनी से हर इक शब-ए-ग़म सँवर गई है
तुलूअ'
कुछ और पिला नशात की मय