बुरा न मान 'ज़िया' उस की साफ़-गोई का
जो दर्द-मंद भी है और बे-अदब भी नहीं
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कही अन-कही
इज़हार ना-रसा सही वो सूरत-ए-जमाल
हिम्मत है तो बुलंद कर आवाज़ का अलम
दे गया दर्द-ए-बे-तलब कोई
तेरा ग़म भी न हो तो क्या जीना
जी रहा हूँ प क्या यूँही जीता रहूँ
अपने अहवाल पे हम आप थे हैराँ बाबा
ख़ून के दरिया बह जाते हैं ख़ैर और ख़ैर के बीच
हाँ मुझ पे सितम भी हैं बहुत वक़्त के लेकिन
तेरे दुख को पा कर हम तो अपना दुख भी भूल गए
तुलूअ'
अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं