देख फूलों से लदे धूप नहाए हुए पेड़
हँस के कहते हैं गुज़ारी है ख़िज़ाँ भी हम ने
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अन-कही बात के सौ रूप कही बात का एक
हिम्मत है तो बुलंद कर आवाज़ का अलम
दूरी
निगाहों में ये क्या फ़रमा गई हो
वो ख़्वाब क्या था कि जिस की हयात है ताबीर
शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं
सोज़-ए-दिल भी नहीं सुकूँ भी है
छेड़ी भी जो रस्म-ओ-राह की बात
तिरी निगह से इसे भी गुमाँ हुआ कि मैं हूँ
मुंजमिद होंटों पे है यख़ की तरह हर्फ़-ए-जुनूँ
कितनी देर और है ये बज़्म-ए-तरब-नाक न कह
आँखों में निहाँ है जो मुनाजात वो तुम हो