कैसे दुख कितनी चाह से देखा
तुझे किस किस निगाह से देखा
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इक ख़्वाब था आँखों में जो अब अश्क-ए-सहर है
राह-रौ
उन कही बात के सौ रूप कही बात का एक
हाबील
शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं
ताबा कै
दिल ही दिल में सुलग के बुझे हम और सहे ग़म दूर ही दूर
उन्हें अपने गुदाज़-ए-दिल से अंदाज़ा था औरों का
अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं
कही अन-कही
इज़हार ना-रसा सही वो सूरत-ए-जमाल
आँखों में निहाँ है जो मुनाजात वो तुम हो