मुश्किलें दिल में नई शमएँ जला देती हैं
ग़म से बुझ जाना तो दरवेशों का दस्तूर नहीं
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ये आँसू ये पशेमानी का इज़हार
तन्हा
आँखों में निहाँ है जो मुनाजात वो तुम हो
अब ये आँखें किसी तस्कीन से ताबिंदा नहीं
हाबील
तेरा ग़म भी न हो तो क्या जीना
अब इस का चारा ही क्या कि अपनी तलब ही ला-इंतिहा थी वर्ना
ख़ून के दरिया बह जाते हैं ख़ैर और ख़ैर के बीच
उफ़्ताद तबीअत से इस हाल को हम पहुँचे
इज़हार ना-रसा सही वो सूरत-ए-जमाल
क्या सरोकार अब किसी से मुझे