'ज़िया' वो ज़िंदगी क्या ज़िंदगी है
जिसे ख़ुद मौत भी ठुकरा गई हो
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वक़्त कातिब है
आज ही महफ़िल सर्द पड़ी है आज ही दर्द फ़रावाँ है
मैं आफ़्ताब को कैसे दिखाऊँ तारीकी
दे गया दर्द-ए-बे-तलब कोई
तन्हा
उन कही बात के सौ रूप कही बात का एक
वो ख़्वाब क्या था कि जिस की हयात है ताबीर
इज़हार ना-रसा सही वो सूरत-ए-जमाल
अधूरी
ऐ दिल-नशीं तलाश तिरी कू-ब-कू न थी
ख़ून के दरिया बह जाते हैं ख़ैर और ख़ैर के बीच
कश्कोल है तो ला इधर आ कर लगा सदा