सर-ए-बज़्म मुझ को उठा दिया मुझे मार मार लिटा दिया
मुझे मारता कोई और है वले हाँफ्ता कोई और है
Anwar Masood
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Faiz Ahmad Faiz
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बंगला और बीवी
मैं शिकार हूँ किसी और का मुझे मारता कोई और है
दिल के ज़ख़्मों पे वो मरहम जो लगाना चाहे
सफ़र हो रेल-गाड़ी का तो छके छूट जाते हैं
मैं जिसे हीर समझता था वो राँझा निकला
कूचा-ए-यार में मैं ने जो जबीं-साई की
बिन-बुलाया मेहमान
भारी पैर
जब भी तुझे देखा किसी बोहरान में देखा
माशूक़ जो ठिगना है तो आशिक़ भी है नाटा
मुझे अपनी बीवी पे फ़ख़्र है मुझे अपने साले पे नाज़ है