वो भरी बज़्म में कहती है मुझे अंकल-जी
डिप्लोमेसी है ये कैसी मिरी हम-साई की
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माशूक़ जो ठिगना है तो आशिक़ भी है नाटा
भारी पैर
लाटरी
मिरे रोब में तो वो आ गया मिरे सामने तो वो झुक गया
घर से बाहर
कूचा-ए-यार में मैं ने जो जबीं-साई की
सर-ए-बज़्म मुझ को उठा दिया मुझे मार मार लिटा दिया
जब भी तुझे देखा किसी बोहरान में देखा
मैं जिसे हीर समझता था वो राँझा निकला
दिल के ज़ख़्मों पे वो मरहम जो लगाना चाहे
बंगला और बीवी