बाप ने बेटे को डाँटा और सज़ा के तौर पर
घर से बाहर कर के उस को नौ-दो-ग्यारह कर दिया
बाप की तंबीह पर बेटा बड़े ग़ुस्से में था
उस ने डायल-फ़ोन से फिर नौ-सौ-ग्यारह कर दिया
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बिन-बुलाया मेहमान
सर-ए-बज़्म मुझ को उठा दिया मुझे मार मार लिटा दिया
मिरे रोब में तो वो आ गया मिरे सामने तो वो झुक गया
मैं शिकार हूँ किसी और का मुझे मारता कोई और है
मैं जिसे हीर समझता था वो राँझा निकला
जब भी तुझे देखा किसी बोहरान में देखा
मुझे अपनी बीवी पे फ़ख़्र है मुझे अपने साले पे नाज़ है
सफ़र हो रेल-गाड़ी का तो छके छूट जाते हैं
शायर-ए-आज़म
घर से बाहर
दिल के ज़ख़्मों पे वो मरहम जो लगाना चाहे
वो भरी बज़्म में कहती है मुझे अंकल-जी