ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क

ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का ज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क
नामज़िया-उल-मुस्तफ़ा तुर्क
अंग्रेज़ी नामZia-ul-Mustafa Turk
जन्म की तारीख1976
जन्म स्थानSialkot

यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर

तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा

तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है

थोड़ी सी बारिश होती है

तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत

तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए

समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ

क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी

मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ

मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ

किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया

किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं

जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ

हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे

हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार

अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा

आवाज़ों में बहते बहते

उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ

तुग़्यानी से डर जाता हूँ

सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ

सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ

रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है

फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ

न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं

मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ

कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं

किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं

कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो

जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे

दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं

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