आवाज़ों में बहते बहते
ख़ामोशी से मर जाता हूँ
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किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ