अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
आइने और चराग़ के बीच का फ़ासला हूँ मैं
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मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
थोड़ी सी बारिश होती है
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है