हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
बदन को ज़र्बत-ए-मिज़राब से इलाक़ा नहीं
Habib Jalib
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Rahat Indori
Wasi Shah
Anwar Masood
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Gulzar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(868) Peoples Rate This
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
थोड़ी सी बारिश होती है
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
आवाज़ों में बहते बहते