हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
कि सारी मुश्किलें आसान में पड़ी हुई थीं
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आवाज़ों में बहते बहते
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
थोड़ी सी बारिश होती है
आईने के आख़िरी इज़हार में
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ