किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
तुम्हारे बाद किसी ख़्वाब से इलाक़ा नहीं
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रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
आवाज़ों में बहते बहते
सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे