क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
धूप का रस्ता न था दीवार में
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तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
आवाज़ों में बहते बहते
कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं