समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ
वो सरगोशी में क्या क्या कह रही है
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कहीं ये लम्हा-ए-मौजूद वाहिमा ही न हो
कितने ही फ़ैसले किए पर कहाँ रुक सका हूँ मैं
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं