तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कभी मैं ख़ुद को तिरे नाम से बुलाता हुआ
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अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
चराग़-ए-कुश्ता से क़िंदील कर रहा है मुझे
थोड़ी सी बारिश होती है
तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
उन आँखों की हैरत और दबीज़ करूँ
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
आईने के आख़िरी इज़हार में
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ