तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
हमेशा मुझ में तह-दर-तह रही है
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किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
फिर उसी धुन में उसी ध्यान में आ जाता हूँ
तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
आवाज़ों में बहते बहते
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
तुग़्यानी से डर जाता हूँ
हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे