तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
मैं किसी धूप सा दालान में आ जाता हूँ
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जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
थोड़ी सी बारिश होती है
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी