यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
आख़िरी फ़ैसला तलवार उठाने से हुआ
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आईने के आख़िरी इज़हार में
जिस भी लफ़्ज़ पे उँगलियाँ रख दे साज़ करे
तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
सूरज निकलने शाम के ढलने में आ रहूँ
तुग़्यानी से डर जाता हूँ
तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
न थीं तो दूर कहीं ध्यान में पड़ी हुई थीं
रिफ़ाक़त की ये ख़्वाहिश कह रही है
सुकूत से भी सुख़न को निकाल लाता हुआ
हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
दिनों में दिन थे शबों में शबें पड़ी हुई थीं
जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ