कैसी ताबीर की हसरत कि 'ज़िया' बरसों से
ना-मुराद आँखों ने देखा ही नहीं ख़्वाब कोई
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उस को जाते हुए देखा था पुकारा था कहाँ
जीने में आसानी रख
सफ़र मुझ पर अजब बरपा रही है
जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है
दर्द की धूप ढले ग़म के ज़माने जाएँ
जिस तरह प्यासा कोई आब-ए-रवाँ तक पहुँचे
आख़िरश कर लिया क़ुबूल हमें
ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई
रेज़ा रेज़ा तिरे चेहरे पे बिखरती हुई शाम
इतनी शिद्दत से गले मुझ को लगाया हुआ है