कुछ ज़ुल्म ओ सितम सहने की आदत भी है हम को
कुछ ये है कि दरबार में सुनवाई भी कम है
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दर्द की शाख़ पे इक ताज़ा समर आ गया है
जो रिश्तों की अजब सी ज़िम्मेदारी सर पे रक्खी है
दर्द की धूप ढले ग़म के ज़माने जाएँ
अब तो आते हैं सभी दिल को दुखाने वाले
उस को जाते हुए देखा था पुकारा था कहाँ
जीने में आसानी रख
हँसते हँसते भी सोगवार हैं हम
इश्क़ जब तुझ से हुआ ज़ेहन के जुगनू जागे
आख़िरश कर लिया क़ुबूल हमें
इक दर्द का सहरा है सिमटता ही नहीं है
कैसी ताबीर की हसरत कि 'ज़िया' बरसों से
जिस तरह प्यासा कोई आब-ए-रवाँ तक पहुँचे