आरिज़ से तिरे सुब्ह की तोहमत न उठेगी
ज़ुल्फ़ों पे तिरी शाम का इल्ज़ाम रहेगा
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जुनूँ शोला-सामाँ ख़िरद शबनम-अफ़्शाँ
हम से वाइज़ ने बात की होती
यक़ीं गर करो तुम बहुत ख़ूब है
हमें भी ज़रूरत थी इक शख़्स की
गो उन्हें राह-ए-इंहिराफ़ नहीं
इसी तरह बातें किए जाइए
पड़ती नहीं है दिल पे तिरे हुस्न की किरन
मेरी तज्वीज़ पर ख़फ़ा क्यूँ हो
अक़्ल कुछ ज़ीस्त की कफ़ील नहीं
जुनून-ए-इश्क़-ए-सर बेदार भी है
जब तक कि मोहब्बत का चलन आम रहेगा
पास-ए-पिंदार-ए-तबीअत दिल अगर रख ले तो क्या