अपना कंगन समझ रहे हो क्या
और कितना घुमाओगे मुझ को
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आइना कब बनाओगे मुझ को
तुम्हारे ग़म से तौबा कर रहा हूँ
कोई तितली निशाने पर नहीं है
इस दर का हो या उस दर का हर पत्थर पत्थर है लेकिन
रास्ते जो भी चमक-दार नज़र आते हैं
उस के ख़त रात भर यूँ पढ़ता हूँ
बैठे-बैठे इक दम से चौंकाती है
वैसे तू मेरे मकाँ तक तू चला आता है
अब तलक उस को ध्यान हो मेरा
हमारा दिल तो हमेशा से इक जगह पर है
ऊँचे नीचे घर थे बस्ती में बहुत