ऊँचे नीचे घर थे बस्ती में बहुत
ज़लज़ले ने सब बराबर कर दिए
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हमारा दिल तो हमेशा से इक जगह पर है
बस मैं मायूस होने वाला था
वो पास क्या ज़रा सा मुस्कुरा के बैठ गया
तुम्हारा सिर्फ़ हवाओं पे शक गया होगा
अपना कंगन समझ रहे हो क्या
एक पहुँचा हुआ मुसाफ़िर है
अब उस का वस्ल महँगा चल रहा है
पहले मुफ़्त में प्यास बटेगी
आज तो दिल के दर्द पर हँस कर
वो जिस ने आँख अता की है देखने के लिए
पहेली ज़िंदगी की कब तू ऐ नादान समझेगा