कितने चेहरों के रंग ज़र्द पड़े
आज सच बोल कर हिमाक़त की
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एक ही घर के रहने वाले एक ही आँगन एक ही द्वार
हम जो गिर कर सँभल जाएँगे
फिर घड़ी आ गई अज़िय्यत की
हर एक लम्हा तिरी याद में बसर करना
ज़ेहन परेशाँ हो जाता है और भी कुछ तन्हाई में
ग़म तो ग़म ही रहेंगे 'ज़ुबैर'