अपनी ज़ात के सारे ख़ुफ़िया रस्ते उस पर खोल दिए
जाने किस आलम में उस ने हाल हमारा पूछा था
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तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
कई कोठे चढ़ेगा वो कई ज़ीनों से उतरेगा
कहाँ मैं जाऊँ ग़म-ए-इश्क़-ए-राएगाँ ले कर
कोई टूटा हुआ रिश्ता न दामन से उलझ जाए
दूर तक कोई न आया उन रुतों को छोड़ने
हमारी गर्दिश-ए-पा रास्तों के काम आई
अपनी पहचान के सब रंग मिटा दो न कहीं
नया जन्म
पुराने लोग दरियाओं में नेकी डाल आते थे
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ
अपने घर के दर-ओ-दीवार को ऊँचा न करो