हम ने पाई है उन अशआर पे भी दाद 'ज़ुबैर'
जिन में उस शोख़ की तारीफ़ के पहलू भी नहीं
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परिंदे लौट आए
रात फिर दर्द बनी
शफ़क़-सिफ़ात जो पैकर दिखाई देता है
बे-कराँ
सम्तों का ज़वाल
कुत्तों का नौहा
कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई
औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं
अपनी पहचान के सब रंग मिटा दो न कहीं
वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल
मुसालहत
ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे