जाते मौसम ने जिन्हें छोड़ दिया है तन्हा
मुझ में उन टूटते पत्तों की झलक है कितनी
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अली-बिन-मुत्तक़ी रोया
हाए ये अपनी सादा-मिज़ाजी एटम के इस दौर में भी
ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
अपने घर के दर-ओ-दीवार को ऊँचा न करो
हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था
बे-कराँ
तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
कोई चेहरा न सदा कोई न पैकर होगा
सफ़ा और सिद्क़ के बेटे
नज़र न आए तो सौ वहम दिल में आते हैं
तब्दीली
छोड़ कर घर की फ़ज़ा रानाइयाँ पछता गईं