कोई टूटा हुआ रिश्ता न दामन से उलझ जाए
तुम्हारे साथ पहली बार बाज़ारों में निकला हूँ
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ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे
ऐसा क्यूँ होता है
दिल को रंजीदा करो आँख को पुर-नम कर लो
शरीफ़-ज़ादा
सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे
बशारत पानी की
शाम होने वाली थी जब वो मुझ से बिछड़ा था ज़िंदगी की राहों में
हम कहाँ आ गए