नज़र न आए तो सौ वहम दिल में आते हैं
वो एक शख़्स जो अक्सर दिखाई देता है
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कहाँ पे टूटा था रब्त-ए-कलाम याद नहीं
ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
शफ़क़-सिफ़ात जो पैकर दिखाई देता है
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
रद्द-ए-अमल
मैं अपनी दास्ताँ को आख़िर-ए-शब तक तो ले आया
वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
अपनी पहचान के सब रंग मिटा दो न कहीं
पूछ न हम से कैसे तुझ तक नक़्द-ए-दिल-ओ-जाँ लाए हम
ये लम्हा लम्हा तकल्लुफ़ के टूटते रिश्ते
धुआँ सिगरेट का बोतल का नशा सब दुश्मन-ए-जाँ हैं