शाम की दहलीज़ पर ठहरी हुई यादें 'ज़ुबैर'
ग़म की मेहराबों के धुँदले आईने चमका गईं
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शौक़ उर्यां है बहुत जिन के शबिस्तानों में
नया जन्म
जाते मौसम ने जिन्हें छोड़ दिया है तन्हा
दिल के तातार में यादों के अब आहू भी नहीं
ऐसा क्यूँ होता है
ज़िंदगी जिन की रिफ़ाक़त पे बहुत नाज़ाँ थी
तब्दीली
अपने घर के दर-ओ-दीवार को ऊँचा न करो
पत्थर की क़बा पहने मिला जो भी मिला है
बिछड़ते दामनों में फूल की कुछ पत्तियाँ रख दो
हवा की अंधी पनाहों में मत उछाल मुझे
था हर्फ़-ए-शौक़ सैद हुआ कौन ले गया