सुख़न के कुछ तो गुहर मैं भी नज़्र करता चलूँ
अजब नहीं कि करें याद माह ओ साल मुझे
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वो जिस को दूर से देखा था अजनबी की तरह
अजीब लोग थे ख़ामोश रह के जीते थे
कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई
नज़र न आए तो सौ वहम दिल में आते हैं
औरतों की आँखों पर काले काले चश्मे थे सब की सब बरहना थीं
हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था
ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल
बे-कराँ
जाते मौसम ने जिन्हें छोड़ दिया है तन्हा
तमाम रास्ता फूलों भरा तुम्हारा था
कुत्तों का नौहा