तुम जहाँ अपनी मसाफ़त के निशाँ छोड़ गए
वो गुज़रगाह मिरी ज़ात का वीराना था
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रात फिर दर्द बनी
है धूप कभी साया शोला है कभी शबनम
हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे
ग़ुरूब-ए-शाम ही से ख़ुद को यूँ महसूस करता हूँ
रद्द-ए-अमल
बे-कराँ
था हर्फ़-ए-शौक़ सैद हुआ कौन ले गया
कहाँ मैं जाऊँ ग़म-ए-इश्क़-ए-राएगाँ ले कर
दिल को रंजीदा करो आँख को पुर-नम कर लो
तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घाइल कर
शरीफ़-ज़ादा