वो जिस को देखने इक भीड़ उमडी थी सर-ए-मक़्तल
उसी की दीद को हम भी सुतून-ए-दार तक आए
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पुराने लोग दरियाओं में नेकी डाल आते थे
नज़र न आए तो सौ वहम दिल में आते हैं
अकेले होने का ख़ौफ़
हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे
ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
ज़िंदगी जिन की रिफ़ाक़त पे बहुत नाज़ाँ थी
सुर्ख़ियाँ अख़बार की गलियों में ग़ुल करती रहीं
तमाम रास्ता फूलों भरा तुम्हारा था
अपनी ज़ात के सारे ख़ुफ़िया रस्ते उस पर खोल दिए
हमारी गर्दिश-ए-पा रास्तों के काम आई
धुआँ सिगरेट का बोतल का नशा सब दुश्मन-ए-जाँ हैं
तुम अपने चाँद तारे कहकशाँ चाहे जिसे देना