वो जिस को दूर से देखा था अजनबी की तरह
कुछ इस अदा से मिला है कि दोस्ताना लगे
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अजीब लोग थे ख़ामोश रह के जीते थे
ख़ुर्शीद की बेटी कि जो धूपों में पली है
ग़ज़ब की धार थी इक साएबाँ साबित न रह पाया
कुत्तों का नौहा
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
पत्थर की क़बा पहने मिला जो भी मिला है
अपने घर के दर-ओ-दीवार को ऊँचा न करो
ज़िंदगी ऐसे घरों से तो खंडर अच्छे थे
वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए
हवा की अंधी पनाहों में मत उछाल मुझे
बरसों में तुझे देखा तो एहसास हुआ है
हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था