ज़िंदगी जिन की रिफ़ाक़त पे बहुत नाज़ाँ थी
उन से बिछड़ी तो कोई आँख में आँसू भी नहीं
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हवा की अंधी पनाहों में मत उछाल मुझे
अली-बिन-मुत्तक़ी रोया
ये लम्हा लम्हा तकल्लुफ़ के टूटते रिश्ते
हम बाद-ए-सबा ले के जब घर से निकलते थे
दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था
सम्तों का ज़वाल
कच्ची दीवारों को पानी की लहर काट गई
इधर उधर से मुक़ाबिल को यूँ न घाइल कर
हम बिछड़ के तुम से बादल की तरह रोते रहे
तिलिस्म-ए-हर्फ़-ओ-हिकायत उसे भी ले डूबा
दूर तक कोई न आया उन रुतों को छोड़ने
शौक़ उर्यां है बहुत जिन के शबिस्तानों में