अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
हम उन्हें आईना दिखा के रहे
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Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
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Jaun Eliya
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रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
इश्क़ में मारके बला के रहे
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं
दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें
हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री
बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते