बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
वक़्त बे-तरह बीता उम्र बे-सबब गुज़री
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रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी
छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ
ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है
सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी