ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
मैं जो मिल जाता तो उस में आबरू उस की भी थी
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इश्क़ में मारके बला के रहे
न सो सका हूँ न शब जाग कर गुज़ारी है
तन्हाई न पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के
पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री
वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन