सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
हसरत है कि बस एक नज़र देख लें हम भी
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हयात वक़्फ़-ए-ग़म-ए-रोज़गार क्यूँ करते
वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
दिन ऐसे यूँ तो आए ही कब थे जो रास थे
ज़ुल्म तो ये है कि शाकी मिरे किरदार का है
न सो सका हूँ न शब जाग कर गुज़ारी है
रक्खा नहीं ग़ुर्बत ने किसी इक का भरम भी
सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ
क़हत-ए-वफ़ा-ए-वा'दा-ओ-पैमाँ है इन दिनों
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी