वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
मैं ने उस को हम-सफ़र जाना कि तू उस की भी थी
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सहरा में घटा का मुंतज़िर हूँ
रो लेते थे हँस लेते थे बस में न था जब अपना जी
पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो
छोड़ कर दिल में गई वहशी हवा कुछ भी नहीं
ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
दीपक-राग है चाहत अपनी काहे सुनाएँ तुम्हें
सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम
न सो सका हूँ न शब जाग कर गुज़ारी है
अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन
बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन
बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए
हर घड़ी क़यामत थी ये न पूछ कब गुज़री