शब में दिन का बोझ उठाया दिन में शब-बेदारी की

शब में दिन का बोझ उठाया दिन में शब-बेदारी की

दिल पर दिल की ज़र्ब लगाई एक मोहब्बत जारी की

कश्ती को कश्ती कह देना मुमकिन था आसान न था

दरियाओं की ख़ाक उड़ाई मल्लाहों से यारी की

कोई हद कोई अंदाज़ा कब तक करते जाना है

ख़ंदक़ से ख़ामोशी गहरी उस से गहरी तारीकी

इक तस्वीर मुकम्मल कर के उन आँखों से डरता हूँ

फ़सलें पक जाने पर जैसे दहशत इक चिंगारी की

हम इंसाफ़ नहीं कर पाए दुनिया से भी दिल से भी

तेरी जानिब मुड़ कर देखा या'नी जानिब-दारी की

ख़्वाब अधूरे रह जाते हैं नींद मुकम्मल होने से

आधे जागे आधे सोए ग़फ़लत भर हुश्यारी की

जितना इन से भाग रहा हूँ उतना पीछे आती हैं

एक सदा जारोब-कशी की इक आवाज़ भिकारी की

अपने आप को गाली दे कर घूर रहा हूँ ताले को

अलमारी में भूल गया हूँ फिर चाबी अलमारी की

घटते बढ़ते साए से 'आदिल' लुत्फ़ उठाया सारा दिन

आँगन की दीवार पे बैठे हम ने ख़ूब सवारी की

(1505) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

Shab Mein Din Ka Bojh UThaya Din Mein Shab-bedari Ki In Hindi By Famous Poet Zulfiqar Aadil. Shab Mein Din Ka Bojh UThaya Din Mein Shab-bedari Ki is written by Zulfiqar Aadil. Complete Poem Shab Mein Din Ka Bojh UThaya Din Mein Shab-bedari Ki in Hindi by Zulfiqar Aadil. Download free Shab Mein Din Ka Bojh UThaya Din Mein Shab-bedari Ki Poem for Youth in PDF. Shab Mein Din Ka Bojh UThaya Din Mein Shab-bedari Ki is a Poem on Inspiration for young students. Share Shab Mein Din Ka Bojh UThaya Din Mein Shab-bedari Ki with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.