दश्त-ओ-दरिया की इब्तिदा से हैं
हम वही तीन दिन के प्यासे हैं
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ये किस ने हात पेशानी पे रक्खा
सुनते हैं जो हम दश्त में पानी की कहानी
पेड़ों से बात-चीत ज़रा कर रहे हैं हम
रवानी में नज़र आता है जो भी
मैं जहाँ था वहीं रह गया माज़रत
बड़ी मुश्किल कहानी थी मगर अंजाम सादा है
दिल में रहता है कोई दिल ही की ख़ातिर ख़ामोश
यूँ उठे इक दिन कि लोगों को हुआ
अश्क गिरने की सदा आई है
सो लेने दो अपना अपना काम करो चुप हो जाओ
सफ़र पे जैसे कोई घर से हो के जाता है