यूँ उठे इक दिन कि लोगों को हुआ
अब्र का धोका हमारी ख़ाक पर
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सहराओं के दोस्त थे हम ख़ुद-आराई से ख़त्म हुए
ये किस ने हात पेशानी पे रक्खा
यूँ जो पलकों को मिला कर नहीं देखा जाता
इक नफ़स नाबूद से बाहर ज़रा रहता हूँ मैं
शब में दिन का बोझ उठाया दिन में शब-बेदारी की
सफ़र पे जैसे कोई घर से हो के जाता है
बड़ी मुश्किल कहानी थी मगर अंजाम सादा है
अश्क गिरने की सदा आई है
सो लेने दो अपना अपना काम करो चुप हो जाओ
ये रास्ते में जो शब खड़ी है हटा रहा हूँ मुआफ़ करना
दिल में रहता है कोई दिल ही की ख़ातिर ख़ामोश