किस का चेहरा ढूँडा धूप और छाँव में
और ख़्वाबों में रंग भरे तो किस के लिए
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कुछ गुनह नहीं इस में ए'तिराफ़ ही कर लो
ये दर-ओ-दीवार पर बे-नाम से चुप-चाप साए
हमारे शहर में आने की सूरत चाहती हैं
नदी किनारे बैठे रहना अच्छा है
वो सानेहा हुआ था कि बस दिल दहल गए!
पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी
हम ने सारे हर्फ़ लिखे तो किस के लिए
इन लबों से अब हमारे लफ़्ज़ रुख़्सत चाहते हैं
कातता हूँ रात-भर अपने लहू की धार को
ये शोर-ओ-शर तो पहले दिन से आदम-ज़ाद में है